Violence Against Women Women Women Empowerment

Let’s Start With Us…(एक छोटी सी शुरुवात)

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by Tanu Sharmaa


एक अल्हड़-उन्मुक्त सी हंसी, समंदर की लहरों की तरह किसी की खिलखिलाहट, गहरे नीले आकाश जैसी किसी की मुस्कान और आपके आंगन में मुस्कुराती एक मासूम हसरत । ज़िंदगी हमें कई रंगों में मिलती है वो आपकी मां के लाड़, आपकी बहन के प्यार और आपकी बेटी की चंचलता में डूबे चमकीले सपनों की तरह भी होती है जो आपकी, हम सबकी ज़िंदगी को गुल्ज़ार बनाते हैं और जीवन देते हैं। अब ज़रा सोचिए इस खूबसूरत एहसास के इतर पड़ोसी की मार खाती पत्नी, कॉलेज जाने की ज़िद्द करती एक टीनएजर, अपने अस्तित्व को संवारने की कोशिश करती एक ऐसी महिला जो आज एसिड अटैक या रेप का शिकार बन चुकी है, कैसा जीवन होता होगा इन महिलाओं का।

सच को स्वीकारें और कहिए कि हां, हममे से ज्यादातर लोगों ने अपनी ज़िंदगी के दायरे के बाहर कभी झांका ही नहीं, हम खुद के बनाए जाल मे इतने उलझे हुए हैं कि अपने दायरे से बाहर की हर बात बेमानी लगती है और हम तो यह भी नहीं सोच पाते कि घरेलू बाई की बेटी के अंदर भी बिल्कुल वैसी ही धड़कनें होती है जैसी हमारी खुद की बेटी की। उसकी ख्वाहिशें भी उतनी ही बुलंद होती हैं जैसा कभी आपकी हुई होंगी, आपका फोकस सिर्फ इतना भर होता है कि लक्ष्मी, शीला, मुन्नी के साथ अगर उसकी बेटी भी आती है तो चलो कोई बात नहीं, घर के छोटे मोटे काम में हाथ ही बंटा देगी।

ताज्जुब नहीं होता जब एक महिला किसी दूसरी महिला के बारे में ऐसा सोचती है, क्योंकि सदियों से ही महिलाओं की ऐसी ही कंडिश्निंग की गई है कि वो अपने पति, बच्चे और परिवार से अलग ना कुछ कर पाएं और ना कुछ सोच पाएं। अब आप ये मत कहिएगा कि हमारे साथ तो ऐसा नहीं है ना हमारे पिता ने हमें रोका और ना हीं हमारे पति ने कभी कोई पाबंदी लगाई, मोहतरमा हो सकता है कि आप एक बेहतर ज़िंदगी जी पाईं लेकिन सबके साथ ऐसा नहीं होता। सभी महिलाएं पढ़-लिख नहीं पाती, सब अपनी मंज़िल तक नहीं पहुंच पातीं, कुछ पारिवारिक दबाब के चलते, कुछ इज्ज़त के लिहाज़ के चलते और कुछ अपनी कुंठित परिस्थितियों के तहत एक ऐसा जीवन जीने के लिए अभिशप्त हैं, जो उनके सपनों में कभी था ही नहीं।

यहां बात आधी आबादी की आम सी ज़िंदगी की है, जो हर कदम एक मुसलसल जंग में जीती है लेकिन जिसमें यकीनन कुछ बुलंदियों की तस्वीरें भी हैं। लेकिन सवाल है कि यह तस्वीर बदलेगी कैसी, किसका इंतज़ार है और किस पर भरोसा। खुली हवा में सांस लेना, मर्ज़ी से जीना, खाना, पहनना, अपने सपनों में रंग भरना और ख्वाहिशों को पंख लगाना आखिर होगा कब।

क्यों, क्या पिछली सदियों की तरह अब भी नियति पर ही भरोसा है क्या।

उठो और खुद को बदलो, किसी क्रांति की दरकार नहीं है यहां, किसी जादू की भी ज़रुरत नहीं है, तुम्हें अपने ख़ज़ाने भी खाली नहीं करने है और ना ही परिवार से किसी की इजाज़त की ज़रुरत है। सिर्फ समझो- बात बड़ी छोटी और साधारण सी है, अपने जीवन में किसी भी एक महिला की ज़िंदगी भी बेहतर बनाने का अगर आप प्रण ले लें और यही प्रण अगर इस वक्त मौजूद हर महिला ले ले तो यकीनन आने वाला कल आज से बेहतर होगा।

महिलाएं तो हर कदम पर एक लड़ाई लड़ती हैं, पुरुष और परिवार की तो छोड़िए, कभी मां से तो कभी सास से तो कभी ऑफिस में मौजूद किसी कुंठित महिला से ….क्यों ना सिर्फ इसे ही, जीहां सिर्फ इसे ही बदला जाए और इस छोटे से कदम से एक बड़ा परिवर्तन लाया जाए। क्यों नहीं एक सास बिना किसी पूर्वाग्रह के अपनी बहू को बेटी जैसा प्यार दे सकती, क्या यह कोई क्रांतिकारी क़दम होगा, नहीं, बस एक छोटी सी शुरुवात भर । बिना किसी पर निर्भर हुए कम से कम हम तो अपनी ज़िंदगी बेहतर बना ही सकते हैं। इससे पहले कि आपकी नज़रों के सामने किसी और महिला का जीवन बर्बाद हो या किसी की ख्वाहिशों के पंख को काट दिया जाए, कम से कम आप तो एक कदम बढ़ा पाएं और कोशिश करें जीवन के हर कदम पर मिलने वाली किसी भी महिला की आप हर संभव मदद करेंगी, उसके जीवन को बेहतर बनाने की कोशिश करेंगी।

महिला सशक्तिकरण महिला के ही द्वारा।

आने वाला कल और भी गुलाबी हो, इस एक उम्मीद के साथ।

 

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17 Comments

  1. काश सब इस तरह से सोचने लगें।
    एक अच्छी कोशिश आपकी।

  2. बात तो मौजूं भी है और वाजिब भी । इतना तो है कि किसी बड़ी क्रांति के इंतज़ार में रोज़मर्रा के छोटे छोटे संघर्षों से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता । किसी एक के शोषण को रोकना उसे अपने साथ संघर्ष में शामिल करने की गारंटी देता है – उस संघर्ष में जिसमें सदियों के उत्पीड़न को ख़त्म करने में दशकों लग सकते हैं । आपकी अपील ज़ोरदार तरीके से लोगों को शरीक़ होने की दावत दे रही है । हमें शामिल समझिये ।

  3. प्रतिस्पर्धा और अन्य सामाजिक कारणों से (घर या बाहर) महिला ही महिला की शत्रु बन गयी है। कन्या भ्रूण हत्या भी इसी का एक सजीव उदाहरण है।

  4. ये एक चेन रिएक्शन की तरह कामयाब हो सकता है, बस अगर हर मां या महिला आगे मिलने वाली महिला को मज़बूत करने की ज़िम्मेदारी निभा जाए। एेसा मेरा विश्वास है।

  5. अच्छा लिखा है तन्नू जी यहां बात आधी आबादी की आम सी ज़िंदगी की है

  6. यह लेख पढ़ते हुए मेरे ज़हन में उन तमाम औरतों के चेहरे घूमते रहे, जिन्हें जब भी देखा, कोई-न-कोई लड़ाई लड़ते ही देखा. यूं तो जीवन का दूसरा नाम ही संघर्ष है पर एक महिला का जीवन ज़्यादा अड़चनों भरा है, इसमें कोई दो राय नहीं. ऐसे में अगर हम स्त्रियों के प्रति अपनी संवेदना बनाए और बचाए रखें तो दुश्वारियां अपने आप कम होंगी!

    तनु, तुम यूं ही लिखती रहो… आने वाला कल गुलाबी ही नहीं, सुनहरा भी होगा!!

  7. Kiren you are one person who does action before talking !!! You did that with fempowerment !!! Love , support and blessings always ???

    Tanu good work ?

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